Thursday 27 March 2014

एक तमन्ना

घुलकर लहू में मैं जो तेरे जिगर में उतर जाऊँ
मैं ताउम्र भटका हूँ अब तेरे दिल में बसर पाऊँ

यूँ ही एक रोज भटकते हुए मैं जो तेरे घर पहुंचा
लौटने लगा तो ये सोचा की जाऊँ तो कहाँ जाऊँ

एक तमन्ना है की तेरे सीने पे सर रखूं सुकूँ पाऊँ
ग़म-ए-दौरां से उब चुका हूँ अब थोड़ी ख़ुशी पाऊँ

ये जिस ख़ुशी की आहट पे मेरा ग़म सो रहा है "धरम"
ग़र वो हो तेरा नाम तो मैं इससे ज्य़ादा और क्या पाऊँ

Wednesday 19 March 2014

एक सिलसिला जारी रहा

रूठने मनाने का सिलसिला  बदस्तूर जारी रहा
उन्हें हमारे दुश्मनो से मिलने का ऐतवारी रहा

ये खता किसकी है यह बताना तो मुश्किल है
उसका मुझपर हर रोज सितम ढाना जारी रहा

एक-एक वक़्त जोड़कर मैंने मोहब्बत बुलंद की थी
मगर उसका तो हरेक याद को झुठलाना जारी रहा

जोड़कर लम्हें मैं अपना मकाँ-ए-इश्क़ बनाता रहा
उसका मेरे ही चिराग से मेरा घर जलाना जारी रहा

जलती यादों को देखकर मैं बार-बार तड़पता रहा
उसका हरेक याद को ज़िंदा दफनाना जारी रहा

सबकुछ लुट गया "धरम" फिर भी मेरा ऐतवारी रहा
मगर उसका मेरे रकीब के बाँहों में बाहें डालना जारी रहा



Tuesday 18 March 2014

कई चेहरे

एक चेहरे के पीछे कई चेहरे छुपाना
सीखा है कहाँ से ये इल्म मुझे भी बताना

अपनों पे सितम ढाना गैरों पे करम करना
मैं खूब जनता हूँ तेरा इल्म तुम मुझे न भरमाना

इश्क़ मोहब्बत यारी ये तेरी सब झूठी बातें हैं
तुम हरज़ाई बनकर अब मुझे न आज़माना

जो छुपे महताब आसमां में तो तेरा इश्क़ फरमाना
जो निकले आफताब तो तेरा सर-ए-आम शर्माना

उसके इश्क़ के चर्चे मैंने भी खूब सुना है "धरम"
कितनों को देखा है बहते दरिया से कतरा हो जाना


Thursday 13 March 2014

कभी ऐसा भी हो

ये लाज़िमी नहीं कि हर बार दुआ-सलाम ही हो
क्यूँ न कभी-कभी हो तो क़त्ल-ए-आम भी हो

ये क्या कि हर बार बस पिलाते हो मय
जो हो तो कभी-कभी नज़र-ए-ज़ाम भी हो

तुम जो हर रोज गुजरती हो मेरी गली से दिन में
क्यूँ न ऐसा हो कि मेरी गली में तेरी शाम भी हो

ये क्या कि हर रोज का यूँ हीं छुप-छुप कर मिलना
अब मिलना हो तो मिलो वहाँ जो राह-ए-आवाम भी हो

वक़्त की पावंदी में हरेक मुलाक़ात मुख़्तसर लगती है
अब की मिलो तो दिन हो शाम हो और शब्-ए-जाम भी हो

यूँ तो तुम हमेशा मेहरबां होते हो हरेक दौलतमंद पर "धरम"
कभी ऐसा भी हो की तुम भी हो और गर्दिश-ए-अय्याम भी हो

Monday 10 March 2014

ये क्या पाया

अपनी कब्र खोदी ज़िंदा ज़िस्म दफनाया
ज़न्नत की सैर की वहाँ भी न मज़ा पाया

अपना सीना चीरा खुद अपना ही लहू पीया
टुकड़ों में बांटकर ज़िस्म खुद मैंने बिखराया

ये किसकी आह! पर दिल मेरा धड़क आया
ये कौन है जो मेरे बिखरे ज़िस्म को समेट लाया

उड़ जाता हूँ एक फूंक से ये कैसा मैंने ज़िस्म पाया
टूट जाता है दो बे-दिली के हर्फ़ से कैसा मैने दिल पाया

जिसकी साँसों की गर्मी से बदन ठंढा हो जाता है
ऐ ख़ुदा! जो पाया भी तो उसने कैसा महबूब पाया

चीरे हुए दिल का तुम रफू खूब करते हो "धरम"
ख़ुदा से पाया भी ये इल्म तो क्या भला पाया