Monday 31 December 2012

फ़कीरी

जब तलक फ़कीरी मेरे साथ है 
किसी ग़म का न मुझे एह्शास है 
मुफलिसी दूर रहती है मुझसे 
अमीरी से मेरा कोई वास्ता नहीं 

चेहरे पर अब कोई फ़िक्र नहीं है 
ग़म का भी कोई जिक्र नहीं है 
मैं यूँ ही जमीं पर लेट जाता हूँ 
आसमां के तारे गिनता रहता हूँ

Thursday 27 December 2012

"मूड आई "


आई आई टी बॉम्बे का "कल्चरल फेस्ट "
जी हाँ  यह "मूड इंडिगो "  है
किस "कल्चर" का "फेस्ट" है यह
मुझे पता ही नहीं चल पाया
और पता चले भी तो  कैसे
पहले कभी ऐसा देखा भी न था

कई तरह की  सुंदरियों के हुजूम थे
कुछ "मिनी स्कर्ट्स " में तो
कुछ "माइक्रो स्कर्ट्स " में थे
मेरे एक साथी ने कहा
अब तो नेनो का ज़माना है

अपने जीवन में इतनी सारी सुंदरियाँ
और वो भी  इतने कम कपडे में  
जी हाँ .. मैंने आज तक न देखा था

देशी बोल और उस पर बिदेशी धुन
शायद गधा भी इतना बेसुरा न हो
सिर्फ इतना ही नहीं
उस धुन पर लोगों का बेवाक हो जाना
कभी उछलना कभी झूमना
और कभी "यो - यो " करना
और भी कई तरह की हरकतें

षोडशी बालाओं का तो कुछ कहना ही नहीं
"फेविकोल" से चिपकने वाले गाने को
पूर्ण रूपेण चरितार्थ करते हुए
सबों का मनोरंजन कर रही थी


सुना था आई आई टी बॉम्बे का
"एक्सपोजर" बहुत अच्छा है
जो अब कुछ दिख भी रहा है
जी हाँ , दो साल मैंने
आई आई टी खड़गपुर में भी बिताया
"एक्सपोजर" वहां  भी था मगर
 वाकई बॉम्बे के जितना न था


Sunday 16 December 2012

मेरा कद


पुस्तैनी मंजिल की सीढ़ी चढ़ा था
एक सुखद एहसास हुआ
यहाँ तो हर पीढ़ी चढ़ा था
नक़्शे-पॉ ढूंढने लगा था मैं
बुजुर्गों के कद से
मेरा कद छोटा लगा था

Friday 14 December 2012

चंद शेर


   रात का जुगनू कितना रौशनी लुटायेगा 
   प्यास समंदर का हो तो क्या कतरा बुझा पायेगा
........................................................................
  अब तो मयखाना भी सुकूँ नहीं देता 
  जिक्र-ए-जम्हूरियत वहाँ भी होने लगा
........................................................................
   मेरे घर के दीवारों से भी 
   मुफलिसी दिखाई देती है 
   प्लास्टर सारे झड़ गए हैं
   अब सिर्फ ईट दिखाई देती है
........................................................................
  इश्क में खाई शिकस्त याद आ गई 
  एक बार फिर उसकी याद आ गई
........................................................................
  मैं तन्हा था अकेला था ठीक था 
  भीड़ में निकला तो लोगों ने लूट लिया
........................................................................
  सागर के किनारे बैठा जलजला का खुराक हो गया 
  उसको चाहने वाला आज सुपुर्द-ए-खाक हो गया 
..........................................................................
  एक अजब दास्ताँ कुछ यूँ हुआ 
  अपने मकाँ को वह समाँ कह गया 
  औरों के दुकाँ को मकाँ कह गया
  नज़र मिली तो उसने नज़र झुका ली 
  और झुकी नज़र से ग़म-ए-दास्ताँ कह गया
...........................................................................
  मेरा भरम अभी रहने देना 
  तुम जब भी मुझको देखो 
  थोड़ा मुस्कुरा देना 
  मेरा भरम अभी रहने देना

Sunday 9 December 2012

एक अनुभूति


जज्बात की लाठी का खटखट
और फिर उसके आने की आहट
मानो ठंढी हवा का बदन से लिपटना
और फिर वो सिहरन जो सुकूँ देता हो

ख़ामोशी की जुबां
मानो कह रहा हो
लिपट कर चूम लो मुझको

सलोनी चेहरे की ख़ुशी
नज़र का थोड़ा झुकना
फिर यूँ ही कुछ बुदबुदाना
मानो कुछ कहना भी
और कुछ ना कहना भी

उसके हाथ पर अपना हाथ रखना
उसके कंधे पर अपना सिर रखना
ठंढी सासें लेना
और फिर खो जाना
दूर कहीं सितारों में

Friday 7 December 2012

तुम सिकंदर हो


मुकद्दर का फैसला है
तुम्हें मानना ही पड़ेगा
तुम सिकंदर हो
तुम्हें जीतना ही पड़ेगा

तुम क्यूँ फंस रहे हो कतरे में
जब दरिया खड़ा है तेरे दीदार के लिए
भुला दो, वो कल की बातें थी
देखो समंदर लहरा रहा है तेरे इंतज़ार में  

ख्वाब


ख्वाब की दुनियां बना  लेने दो
दिल के अरमां सजा लेने दो
यूँ तो हकीकत में मिलना मुमकिन नहीं
बस ख्वाब में एक आशियाँ बना लेने दो

लिपटने दो मुझको मेरे अरमां से
चूम लेने दो मुझको मेरे ख्वाब को
हकीकत में जन्नत मैंने देखी नहीं
बस एक नज़र ख्वाब में देख लेने दो

Monday 3 December 2012

एक पुराना लम्हा


चांदनी रात
मोर के पूरे फैले पंख
चितकोबरे रंग का एक मेमना
पीछे के झील से हवा का गुजरना
फिर तुम्हारे बदन को छू जाना
और तुम्हारी ठंढी आहें भरना

दूर के टीले पर तुम्हारा चढ़ना
और उछल कर चाँद को चूमना
कभी कभी सन्नाटे का कुछ कह जाना
फिर मेरा तुम्हारी नज़रों से पूछना
और फिर तुम्हारा निःशब्द उत्तर

नर्म हरी घास पर तुम्हारे कोमल हाथ
और तुम्हारे हाथ पर मेरा चूमना
तुम्हारी ठहरी सी आवाज़
और मेरे सांसों का थम जाना
बर्षों बीत गए इस लम्हे को
मगर लगता है जैसे कल की बात हो


Friday 30 November 2012

अधूरी मजदूरी


जेठ का महीना
दिन का दूसरा प्रहर
चिलचिलाती धूप
पसीने से लतपत एक बुढिया
माथे पर कुछ ईट लिए
आगे बढ़ रही थी
मानो कदम थक सा गया हो
मगर हौसले बुलंद थे उसके
कि शाम ढलेगी तो
उसकी मजदूरी के
सत्तर प्रतिशत पैसे तो मिलेंगे ही
जी हाँ
कुछ दिन पहले कि ही तो बात थी
ठेकेदार बोल गया था उसको
अब तुम बूढी हो गई हो
तुम्हे मैं पूरी मजदूरी नहीं दे सकता

Tuesday 27 November 2012

झूठी तस्सली


जिंदगी
तुम मुझसे दूर क्यूँ हो
कभी तो हल्की सी मुस्कराहट
और फिर कभी वही बेरुखी
फासला भी सिर्फ चार कदम का

मैंने देखा है तुमको मुखौटे बदलते
ढेर सारे चेहरे हैं तुम्हारे
बदला चेहरा और बदला अंदाज़
मैं अक्सर धोखा खा जाता हूँ
ये तुम हो की कोई और है

मगर फिर तुम्हारा
वही चेहरा नज़र आता है
जिसमे तुम अक्सर नज़र आती हो
कभी-कभी मुस्कुराती हुई
तस्सली होती है
कि यही तुम्हारा असली चेहरा है
मगर मुझे पता है
मेरी तस्सली झूठी है

Wednesday 21 November 2012

व्यक्तिगत लड़ाई


एक छोटी सी नैया मेरी
और सामने राक्षश सा समंदर
मुहं बाये, बाहें फैलाये
घोर चीत्कार कर रहा है
डराता है
कभी लहरों से
कभी तूफानों से

मुझे पार करना है
पतवार को तो
वह राक्षश खा गया है

मगर बचा है अभी
अपनी  दृढ इच्छा शक्ति
गुरु का मार्गदर्शन
पूर्वजों का सत्कर्म
बड़ों का आशीर्बाद

तौलना है
समंदर की लहरों से
मन की तरंगों को

यह तो व्यक्तिगत लड़ाई है
हार होगी तो बिल्कुल अपनी
जीत होगी तो बिल्कुल अपनी

Sunday 11 November 2012

नशा..

मुंबई का एक रेस्तरां 
मद्धिम सी रौशनी 
बहुत सारे हसीं चेहरे 
और उनके चेहरे की ख़ुशी 

कुछ तंग कपड़े 
और आकर्षक बदन 
अंग्रेजी गानों की धुन
और उसपर थिरकना 

दो-चार जाम
और आखों का चार होना
नशा किसमें जियादा है
मुश्किल है बताना

Monday 5 November 2012

एहसास


पलकों पर ओस की कुछ बूंदें  
हथेली पर थोड़ी सी मेहँदी
रुक्सार पर थोड़ी सी हल्दी
होठों पर अजीब सी मुस्कान

खुद अपने में ही तुम्हारा सिमटना
आईने से लुका-छिपी करना
सरकते दुप्पटे को झटक कर उठाना
अमावश में चांदनी बिखेरना

तुम्हारा जाना जैसे
मानो समुन्दर की लहरों का
दिल के ऊपर से गुजरना
थोड़ी बेचैनी और थोडा दर्द भी

Monday 1 October 2012

सा लगा

आज यूँ ही आइना देखा
हमशक्ल भी बेशक्ल सा लगा
गीत खुद गुनगुना रहा था
मगर सुर दूसरा सा लगा

वो गुफ्तगू भी यूँ
कुछ बेजां सा लगा
गम-ए-हिज्र भी यूँ
कुछ रूठा सा लगा

मन आसमां में उड़ रहा था
मगर पंख टूटा सा लगा
अपनी ही तबाही का गिला
यूँ कुछ बेमजा सा लगा

जब वो गुजरा था बगल से मेरे
फ़क़त रौशनी भी अँधेरा सा लगा
शिकस्त तो अपनी ही थी
मगर रंज फींका सा लगा

Tuesday 11 September 2012

तुम्हारी तन्हाई


तुमको भी मैंने कभी तन्हा देखा था
खुद से यूँ रुसवा भी देखा था
तुम्हारे घर का वो तोता भी चुप था
घर में कुछ अजीब सन्नाटा भी देखा था

पुराने ख़त के टुकड़े भी देखा था
एक टूटा हुआ आइना भी देखा था
फर्श पर सामान कुछ यूँ  बिखरा था
मानो तन्हाई में बिखरा हुआ मन

घर के दीवार पर लटकती हुई एक घड़ी
जो हमेशा एक ही समय बतलाती थी
मानो जिंदगी कुछ यूँ ठहर सी गई हो
और तुमने उस वक़्त को कैद कर रखा हो

तुम्हारी तन्हाई से मुझे कोई गिला भी नहीं
तुम्हारी बेवफाई से मुझे कोई शिकवा भी नहीं
वक़्त है, वक़्त तो यूँ ही निकल जाता है "धरम"
कुछ ज़ख्म हरे हो जाते हैं और कुछ भर भी जाते हैं

Wednesday 5 September 2012

कुछ यादें

1.
कुछ आड़ी तिरछी-लकीरों को 
मैं यूँ ही सुलझा रहा था 
मगर मैं और उलझता ही जा रहा था 
जैसे वह लिखावट बिलकुल ही अस्पष्ट हो 
कि लिखी हो किसी पत्थर पर 
खुद हमारी ही किस्मत

2.
वो जो पंछी का जोड़ा बैठा करता था 
अब तो दिखाई भी नहीं देता
किसी ने पेड़ की वो डाल
बस अनजाने में ही सही
मगर काट दी है ...

3.
वक़्त ने मुझको भी तन्हा कर दिया 
क्यूँ इतना सन्नाटा है मेरे पास 
इसको समेटने का साहस भी तो नहीं 
उसकी यादें भी तो अब बची नहीं 

लिखावट के चंद अक्षरों को भी
जी करता है खुद से मिटा दूं
मगर जब भी मिटाने जाता हूँ
एक याद उभर कर आती है ...





4.


आज बदल गरज कर बिना बरसे ही चला गया
न जाने क्यूँ मुझे एक फिर उसकी याद आ गई ....

Thursday 26 July 2012

डर नहीं लगता

अंगारों पर चलने वालों को
चिंगारी का डर नहीं लगता

समुन्दर की लहरों से खेलने वालों को
दरिया से डर नहीं लगता

जिसके दिल पे चली है हमेशा से तलवारें
उसे किसी छुरी से डर नहीं लगता

इश्क के हर दौड़ में जीतने वालों को
इश्क में फिसलने का डर नहीं लगता

जिसने सीखा है आखों से समंदर पीना
उसे दो-चार जामों का डर नहीं लगता

जिसकी हो हज़ार मासुकाएँ "धरम"
उसे एक के रूठने का डर नहीं लगता  

Monday 23 July 2012

पैगाम-ए-मोहब्बत


हवाओं के हाथों उसने पैगाम भेजा है
अपने दिल पर लिख कर मेरा नाम भेजा है
हर रश्म-ए- उल्फत को तोड़कर
मोहब्बत का पैगाम सरे-आम भेजा है

फूलों से थोड़ी खुशबू भी ली है
तितलियों से थोडा रंग लिया है
परियों की सुन्दरता में सजा कर
मोहब्बत का पैगाम सरे-आम भेजा है

कभी झुककर सलाम भेजा है
कभी लिखकर कलाम भेजा है
हर वादियाँ-ए-हसीं में उसने
मोहब्बत का पैगाम सरे-आम भेजा है

मुस्कुराना एक इल्म है उसका
नज़र में हया भी कुछ कम नहीं
इकरार-ए-मोहब्बत में "धरम"
तुमको भी तौलना कुछ कम नहीं ...  

Saturday 21 July 2012

सूना जीवन

तुम गई तो अपनी स्मृति भी साथ ले जाती
जब भी तुम याद आती हो मुझे कीमत चुकानी पड़ती है
अब वह कोष भी रिक्त हो रहा है
तेरी यादों के दीपक का उजाला ख़त्म हो गया है
बुझे हुए दीपक के कालिख का क्या करूँ

आसमां जो पहले अनंत सा दिखता था
अब शून्य लग रहा है
चांदनी जो खुद आकर लिपटती थी
अब दूर से ही देखकर झेंप जाती है

तेरे यादों का पुलिंदा अब भरी लग रहा है
इंतजार है बस इक तूफां का "धरम"
वह आएगा तो इसे भी उड़ा ले जायेगा
 

Saturday 5 May 2012

आ... हा...

1.

झुकी निगाहों का सलाम बड़ा प्यारा था
वो तेरा एहतराम बड़ा प्यारा था
इश्क में पढ़ा तेरा वो एक कलाम
मेरे  हर एक कलाम से प्यारा था

उस पल का जो गुजरना था
जिंदगी का थोडा थम जाना था
अब याद कभी जब आती है
बस  आखें नम हो जाती है


2.

जिंदगी अब तुम मेरा और इम्तिहाँ मत ले
झूठे शान के भरम का, यूँ ही तुम जाँ मत ले
ज़रा रहम तो कर ऐ मेरे मौला मुझ पर
कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-शाँ का भरम रहने दे........

Thursday 26 April 2012

कशमकश

अजीब कशमकश में
मैं यूँ पड़ा हुआ हूँ
कुछ समझ न पा रहा हूँ
तू करीब है की दूर है

मैं आँखें बंद करता हूँ
तुमको करीब पाता हूँ
पलक जब खोलता हूँ फिर
तुमको दूर पाता हूँ

जिसे मैं दूर कहता हूँ
उसे कोई करीब कहता है
जिसे मैं करीब कहता हूँ
उसे कोई दूर कहता है

बदलते रिश्तों की दुनिया में
अब वह चाँद भी चुप है
" चंदा मामा " को कोई अब
" साला चाँद " कह रहा है

न जाने अब यहाँ क्यूँ
रिश्तों की घटी दुरी सी लगती है
मगर वह " साला चाँद " कहने वाला
मुझे कुछ दूर लगता है

Thursday 12 April 2012

शेर










1.
लोग कहते हैं तू बड़ी दिलखुश्कुं है
तू दिल निहाद है, तू दिलनशी है
तेरी मिलकियत-ए-दिल से कभी "धरम" भी गुजरा था
एक वीराना सा सफ़र ही याद आता है 

2.
तू भी अपनी अब तरीकत कर लो 
एक bar फिर  थोड़ी  मुहब्बत  कर लो
यूँ तो वीरानगी परवान पर है
दिल बहलाने को अब ताज्ज़लीगाह चलते हैं

Tuesday 10 April 2012

जाम @ एक शाम

शाम को यूँ ही जाम लेकर बैठा था
एक बिरहमन के ख्याल में
न जाने कब आँख लग गई
और फिर मैं सो गया
नींद खुली तो देखा
उस जाम को भी आँख लग गई थी
वह ज़मीं पर यूँ ही बिखरा पड़ा था

Monday 2 April 2012

लघु कथा ...

वह आदतन कुछ तेज़ चल रहा था
रास्ते  बड़े  कठिन  थे
उसके चंद साथी  भी रास्ते में छूट गए
उसका मंजिल था " खुद का भाग्य पढना " 
रास्ते में उसने एक फकीर को देखा
सलाम फ़रमाया  और  फिर हाथ बढाया  
फकीर उसके हाथ की लकीरों को पढ़  रहा था
और कुछ बुदबुदा भी रहा था
वह कुछ समझ नहीं  पा रहा था
मगर उसे मंजिल का पता मिल गया 
वह उस पते की ओर बढ़  रहा था
और फिर वहां पहुँच जाता  है
जहाँ उसका भाग्य लिखा था
दरवाजे पर पहुँचकर वह आवाज़ देता है
चंद लम्हों के फासले पर
एक  फ़रिश्ता हाज़िर होता है
बिलकुल उसी के कद-काठी और शक्ल का
वह फ़रिश्ता कुछ यूँ फरमाता है
" जब तुम अपना भाग्य पढने के लिए
इतना कठिन परिश्रम कर सकते हो
तो अपना भाग्य भी तुम खुद लिख सकते हो "
यह सुनकर वह वापस आ जाता है
और फिर जुड़ जाता है अपने कार्यों में !!

बहार फिर आएगी

यूँ ही परीशां ना हो ऐ दिल
अब कि बहार फिर आएगी
गर तुम इंतजार करते हो
तो वो दिलदार फिर आएगी

टूटे हुए दिल को जोड़कर देखो
एक  नाम उभर कर आएगा
गर याद करो तुम तबियत से
वो शाम उभर कर आएगा

कुछ खुशफहमी के लम्हें भी हैं
जो तुमने कभी बिताये  थे 
कुछ याद करो उन लम्हों को
मन  फिर यूँ ही लग जायेगा

यूँ ही परीशां ना.....

Friday 23 March 2012

ऐ मेरे प्यारे वतन


अपनी तबीयत अब किसी से मिलती नहीं
वज़ीरे आज़म की भी अब यहाँ चलती नहीं
चेहरे वज़ीरों के बदल जाते हैं अब दफअतन
तू ही बता कैसे भला हो ऐ मेरे प्यारे वतन

Wednesday 14 March 2012

तुम हो...

तुम हो तो जहाँ भी है
तुम हो तो फिज़ा भी है
तुम हो तो शमां भी है
तुम हो तो खुदा भी है

तुझमे ही फ़ना मैं हूँ
तुझमे भी दिखा मैं हूँ
ग़र तुझको यकीं ना हो
तो फुर्सत में कभी आइना देखना ...

Thursday 8 March 2012

तुम रंग भरो रे


अर्पित अपना स्नेह करो रे
जीवन में तुम रंग भरो रे
भूलकर सारे शिकवे-गिले
तुम भी सबके संग चलो रे

हर से हर का हाथ मिलेगा
जीवन में अब साथ मिलेगा
मिलकर फिर जज़्बात मिलेगा
पग-पग पर अब फूल खिलेगा

हर के रंग में रंगकर अब
निखर जायेगा रूप तुम्हारा
दुर्लभ कुछ भी शेष नहीं है
पा लेगा तू जीवन प्यारा ...

Thursday 1 March 2012

सोच

1.


मैं जब भी किसी नए जगह पर जाता हूँ
वहां एक अनजानी सी बू  आती है .....



2.


कीमत अदा करने चला था मोहब्बत-ए-वालिदैन का
एक भिखारी का वह कर्जखोर होकर वापस आया ....

Monday 20 February 2012

चंद-शेर

1. 

    पी कर ग़म को वो भी मुस्कुराते हैं "धरम"
      तुम भी अपने चेहरे पर ख़ुशी रखा करो ...



2.  

    सुना है पहले पत्थरों में भी दिल होते थे
       अब तो दिल ही पत्थर का हो गया है
          आओ हम भी तन्हाई में ढूंढे
            ख़ुशी के कुछ खामोश पल ...


3.


              पीकर घूँट लहू का उसपर छा जाती है खुमारी
              कोई तो बताओ यारो उसे क्यूँ है ऐसी बीमारी



4.


   ऐ ग़म,
  आओ मैं तुमसे सुलह कर लूँ
  सारे अरमानो का ज़बह कर दूँ
  तू भी तो अब याद रखेगा
  तुमने मुझपर फतह कर ली ...

Thursday 16 February 2012

ग़म-ए-फुरकत

जब वो मुझसे रूखसत हुई
मेरे सारे अरमां दफ़न-ए-तुर्बत हुई
अब उसे फुर्सत भी कहाँ
जो वो मेरी कुलफत करे
जब भी उसका जिक्र होता है
ग़म-ए-फुरकत बड़ा तीब्र होता है
चेहरे पर बनावटी कुर्रत रखता हूँ
शायद इसी आश में " धरम "
कि फिर जब उसका दीदार हो
उसे मेरे ग़म का एहसास न हो

Tuesday 7 February 2012

शायरी

1.

    उनकी बेअदबी पे भी हम अदब से पेश आते हैं
औरों को तो "धरम" उनकी बेअदबी भी मयस्सर नहीं


2.

दिल के दर्द से जो बड़ा पुराना रिश्ता था
एक रंज ने आज उसको भी तोड़ दिया

Monday 6 February 2012

शास्वत सत्य

जब भी कभी अकेले में
मैं शांत बैठा करता हूँ
ह्रदय में एक ज्वार सा उठता है
और वह विचल मन
दूर किसी सन्नाटे में खोजता है
जीवन के शास्वत सत्य को
फिर सामने घना अंधेरा छा जाता है
अन्तः मन का वह दीपक
उस घने अंधेरे को चीरकर
पढना चाहता है उस अविचल सत्य को
मगर वह निराश होकर लौट आता है
और फिर जीवन के आपा-धापी में खो जाता है

Sunday 5 February 2012

सियासी जंग

अभी घर से मत निकलो   सियासी जंग जारी है
 जनता भड़कने वाली है   बाहर दिक्र-दारी है

मुनासिब की बातें न करो   हर दौलतमंद भारी है
झोपड़ी गिरने वाली है  हवेली बुलंद सारी है

कहीं हाथ ऊपर है   कहीं  गजराज भारी है
कहीं फूल उग रहे हैं   कहीं साइकिल सवारी है

कहीं इंसान बिकते हैं    कहीं बेईमान भारी है
धरम की बातें न करो "धरम"  अब यहाँ कहाँ दीनदारी है

Thursday 2 February 2012

इश्क

इश्क कोई सियासी हुकूमत नहीं
यहाँ कोई कैसर नहीं कोई नफ़र भी नहीं

इश्क कोई इबादत-ए-खुदा भी नहीं
यहाँ कोई मौलबी नहीं कोई काफ़िर भी नहीं

इश्क कोई तिजारत-ए-दिल भी नहीं
यहाँ कोई ताजिर नहीं कोई खरीददार भी नहीं

इश्क तो वह पाक रिश्ता है " धरम "
जहाँ इन्सान एक दुसरे में फ़ना हो जाता है 

शायरी

1.

   सूखे अश्कों की लकीरें वो आइने में देखा करते हैं
   दिल जब भी दुखता है वो यूँ ही किया करते हैं


2.

      उसकी कश्ती डुबोने के लिए
      हवा का एक झोंका ही काफी था
      बारिश को यह पता भी था
      क़स्दन वह भी सितम ढा गया

3.

      जिगर का खून भी  असर न कर सका
   वो सितमगर तो बड़ा खून- ऐ-ख्वारी निकला

Monday 30 January 2012

अब साथ चलूँ

आओ चंद कदम अब साथ चलूँ
प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ लूँ 
मोहब्बत के चार आयतें लिख दूं
आसमां पर तेरी सलामी लिख दूं


नर्म घास पर से ओस की बूंद चुरा लूं
ठंढे झील के पानी को थपथपाऊँ
बारिश के बूंदों को आखों पे रख लूं
सूरज के किरणों की सीढ़ी बना लूं

बहती हवाओं को मुट्ठी में पकडूं
मोर के पंख तेरे बालों में लगा दूँ 
तेरे गालों की लाली को होठों पे रख लूं
तुझे बाहों की कैची में कैद कर लूं

आसमां से चंद सितारे तोड़ लाऊँ
उछलकर चांद को चूम लूं
गुलाब की पंखुड़ी से तेरा नाम लिखूं
तेरे लिखावट के कागज़ की छतरी बनाऊँ

आओ चंद कदम ...

Sunday 29 January 2012

मेरे प्यार का...

वो गुज़रा ज़माना वो दिलकश फ़साना
वो पंख पुराना मेरे प्यार का
कभी रुक-रुक के चलना कभी चल-चल के रुकना
वो शोख अदा मेरे प्यार का 

कभी बुत बनाना कभी बुत सा बनना
वो बुतपरस्ती मेरे प्यार का
कभी ग़म की बातें कभी बेग़म की बातें
वो बातें बनना मेरे प्यार का

कभी साँसों की गर्मी कभी गालों की नरमी
वो फिर बुदबुदाना मेरे प्यार का 
कभी ख़ामोशी की रातें कभी शब भर की बातें
वो पल-पल का कटना मेरे प्यार का

कभी होकर न होना कभी न होकर भी होना
वो अहसास पुराना मेरे प्यार का
वो गुज़रा ज़माना वो दिलकश फ़साना
वो पंख पुराना मेरे प्यार का...

Monday 23 January 2012

चंद शेर

1.

उसको चेहरे का गुरुर सियासी मद से भी ज्यादा था
नामुराद आइने ने बताया वह अदना सा एक प्यादा था

2.

बेवाक परिंदा पिंजरे से एक पाक इरादे से निकला
उछलकर चूम आया वह चमकते चाँद का चेहरा

3.

फैसला-ए-इश्क वो क्या फरमाते हैं
जिनके घरों के बुत भी नकाब लगाते हैं


तुम रूठो मुझसे अब नाहीं

मेरे मन का तुम हो माहीं
तुम रूठो मुझसे अब नाहीं
राह चलत जब मैं थक जाऊं
तुम दो मुझको गलबाहीं
तुम रूठो ...

बीच दुपहरी जब मैं निकलूं
तुम दो जुल्फों की छाहीं
तेरे नयनन की प्यासी अखियाँ
तुम मुझको पिला हमराही
तुम रूठो...

तेरी मूरत का मैं हूँ जोगी
तुम बिसरो इसको नाहीं
झूठी दुनिया मन भटकावे
तुम इसमें पड़ो अब नाहीं
तुम रूठो ...

बाँह पसारे आश तकत हूँ
तुम दौड़ मेरे हमराही
मुझको अपने अंक लगाकर
करदे, पूरण मुझको अब माहीं
तुम रूठो मुझसे अब नाहीं...

Sunday 15 January 2012

वह बूढ़ा बरगद

दुर्गा स्थान के प्रांगन का
एक बूढ़ा बरगद
हमारे पुराने सभ्यता की
गवाही देता था
जिसकी विशाल भुजाओं में
हमारी कुछ संस्कृति सुरक्षित थी

उस पेड़ के छाहँ में कभी
सुहागिने अपने सुहाग के
दीर्घ जीवन की कामना करती थी
और वह बरगद पितामह की तरह
अपने दोनों हाथों से आशीर्वाद देता था
जिसे सुहागिने अपने आँचल में समेट लेती थी

कुछ लोग कहते हैं, वह बरगद बीमार हो गया था
और उसके पेट में एक धोधर भी हो गया था
तब गाँव के लोगों के बीच बैठक हुई
फिर बरगद की नीलामी लगाई गई

बात तय हुई कि पहले बरगद का हाथ कटा जाय
फिर कमर तोड़ी जाय
और फिर अस्तित्व विहीन कर दिया जाय
बैठक के इस नतीज़े पर कुछ आखें नम भी हुई
मगर काम पूरा कर दिया गया 

अब उस जगह कि मिट्टी पर फर्श बन गया है
जिसपर थोडा राजनीती का रंग भी चढ़ गया है
जब भी उधर से गुजरता हूँ
एक कसक सी होती है
और ऐसा महसूस होता है
कि वह जगह बिलकुल वीरां हो गया है
जबकि वहां भीड़ अब भी जवां है

मोहब्बत एक बार फिर

मोहब्बत एक बार फिर
मुझको बेजाँ कर गया
हसरत दिल की पूरी भी न हुई
वह फिर रूठ कर गया

नैन भर देखा भी न था
वह फिर ओझल हो गया
सासें थम सी गई
मन उदास हो गया


एक हूँक सी उठी
थोड़ी बेचैनी भी हुई
कुछ ज़ख्म भी दिए
थोडा दर्द भी हुआ

कुछ सवाल उसके चेहरे पर भी था
जो मुझको जबाब दे गया
खुद बे- करार होकर
मुझको बेक़रार कर गया

Sunday 8 January 2012

धरती का स्वर्ग

पुरखों द्वारा बनवाए खपरैल के एक कमरे में
फर्श पर चटाई बिछाकर मैं लेटा हुआ था
दिन के दोपहर में खपरैल के बीच के छिद्र से
सूरज की कुछ मोटी तीब्र किरणे फर्श पड़ रही थी
जिसमे धूल के कण स्पष्ट दिखाई दे रहे थे
बर्षों पहले बचपन में कभी उसी कमरे में
पिताजी के साथ बैठकर सूर्य- ग्रहण देखा करता था

कमरे के दीवार से सटाकर
काठ का एक पुराना आलमीरा रखा था
मैंने उस आलमिरे को खोलकर देखा
एक खाने में अब भी मेरे स्वर्गीय दादाजी के
जरुरत के कपडे और कुछ किताबें रखी थी

दूसरे खाने में तस्वीरों के कुछ एल्बम रखे थे
मैंने उन सारे एल्बम को उठाया और फिर
उस चटाई पर बैठकर तस्वीरें देखने लगा
उनमे कुछ तस्वीरें मेरे जन्म के पहले की भी थी
पुरानी यादें मानस पटल पर सचित्र दस्तक दे रही थी
बड़ा अद्भुत लग रहा था  

सूरज के किरणों की तीब्रता धूमिल हो चली थी
किरणें अब फर्श के बजाए दीवारों पर पड़ रही थी
मेरा व्यथित मन बड़ा ही शांत हो गया था
मुझे स्वर्ग के आनंद की अनुभूति हो रही थी
हाँ, सचमुच वह धरती का स्वर्ग ही तो है
जहाँ पुरखों की स्मृति बसती है.