तिरा तुझ सा भी होना महज़ एक ख़्वाब लगता है
लफ़्ज़-ए-मोहब्बत भी मुसल्लह-इंक़लाब लगता है
हर हुजूम बस एक बहता दरिया है गुज़र जाता है
यहाँ न कोई दुश्मन न ही कोई अहबाब लगता है
क्यूँ दिल ने एक रिश्ता दिमाग़ से बनाना चाहा था
जब दोनों एक दूजे को हमेशा बे-नक़ाब लगता है
कभी हाथ बढ़ाया ही नहीं दिल मिलाया ही नहीं
कैसा शख़्स है वो फिर भी एक सिहाब लगता है
एक वरक़ का एक ख़त औ" सिर्फ़ एक ही लफ़्ज़
माज़ी मौजूदा मुस्तक़बिल सबका जवाब लगता है
'धरम' कोई भी सितम अब नज़र बयां नहीं करता
अश्क़ हो या हो लहू आँखों को ज़हराब लगता है
मुसल्लह-इंक़लाब : ऐसा परिवर्तन जो हथियार बंद लड़ाई के द्वारा आए
अहबाब : मित्र
सोहराब : शक्तिशाली
दूजे : दूसरे
सिहाब : साथी, मित्र
माज़ी : गुज़रा हुआ
मौजूदा : वर्तमान
मुस्तक़बिल : आने वाला
ज़हराब : विष घुला हुआ पानी