Tuesday 11 September 2012

तुम्हारी तन्हाई


तुमको भी मैंने कभी तन्हा देखा था
खुद से यूँ रुसवा भी देखा था
तुम्हारे घर का वो तोता भी चुप था
घर में कुछ अजीब सन्नाटा भी देखा था

पुराने ख़त के टुकड़े भी देखा था
एक टूटा हुआ आइना भी देखा था
फर्श पर सामान कुछ यूँ  बिखरा था
मानो तन्हाई में बिखरा हुआ मन

घर के दीवार पर लटकती हुई एक घड़ी
जो हमेशा एक ही समय बतलाती थी
मानो जिंदगी कुछ यूँ ठहर सी गई हो
और तुमने उस वक़्त को कैद कर रखा हो

तुम्हारी तन्हाई से मुझे कोई गिला भी नहीं
तुम्हारी बेवफाई से मुझे कोई शिकवा भी नहीं
वक़्त है, वक़्त तो यूँ ही निकल जाता है "धरम"
कुछ ज़ख्म हरे हो जाते हैं और कुछ भर भी जाते हैं

Wednesday 5 September 2012

कुछ यादें

1.
कुछ आड़ी तिरछी-लकीरों को 
मैं यूँ ही सुलझा रहा था 
मगर मैं और उलझता ही जा रहा था 
जैसे वह लिखावट बिलकुल ही अस्पष्ट हो 
कि लिखी हो किसी पत्थर पर 
खुद हमारी ही किस्मत

2.
वो जो पंछी का जोड़ा बैठा करता था 
अब तो दिखाई भी नहीं देता
किसी ने पेड़ की वो डाल
बस अनजाने में ही सही
मगर काट दी है ...

3.
वक़्त ने मुझको भी तन्हा कर दिया 
क्यूँ इतना सन्नाटा है मेरे पास 
इसको समेटने का साहस भी तो नहीं 
उसकी यादें भी तो अब बची नहीं 

लिखावट के चंद अक्षरों को भी
जी करता है खुद से मिटा दूं
मगर जब भी मिटाने जाता हूँ
एक याद उभर कर आती है ...





4.


आज बदल गरज कर बिना बरसे ही चला गया
न जाने क्यूँ मुझे एक फिर उसकी याद आ गई ....