कि जब तक शबाब-ए-हुस्न था ज़िक्र-ए-इश्क़ तब तक न हुआ
एक आग सुलगती रही बदन में रूह शादाब अब तक न हुआ
जब यार पर ऐतबार न किया मज़ार-ए-यार पर सज़दा न किया
ज़माने में हद-ए-निगाह तक कोई भी अपना अब तक न हुआ
दरम्यां दोनों रूहों के न सिर्फ दीवार उठाई गई बुलंद भी हुई
बाद दीवार गिरा दी गई मगर हर्ष-ए-विसाल अब तक न हुआ
हर जंग-ए-ज़िंदगी में न सिर्फ शिकस्त खाई मिट्टीपलीत भी हुआ
मौत तो क्या ज़िंदगी के साथ चलने का साहस अब तक न हुआ
ज़िंदगी के हर आग से आग के रिश्ते को 'धरम' पानी करता रहा
हाँ मगर उस रिश्ते के पानी को छूने का साहस अब तक न हुआ
एक आग सुलगती रही बदन में रूह शादाब अब तक न हुआ
जब यार पर ऐतबार न किया मज़ार-ए-यार पर सज़दा न किया
ज़माने में हद-ए-निगाह तक कोई भी अपना अब तक न हुआ
दरम्यां दोनों रूहों के न सिर्फ दीवार उठाई गई बुलंद भी हुई
बाद दीवार गिरा दी गई मगर हर्ष-ए-विसाल अब तक न हुआ
हर जंग-ए-ज़िंदगी में न सिर्फ शिकस्त खाई मिट्टीपलीत भी हुआ
मौत तो क्या ज़िंदगी के साथ चलने का साहस अब तक न हुआ
ज़िंदगी के हर आग से आग के रिश्ते को 'धरम' पानी करता रहा
हाँ मगर उस रिश्ते के पानी को छूने का साहस अब तक न हुआ
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