महज़ ख़्वाब का क़त्ल था कोई गुनाह न था
आँखों के सामने लाश थी कोई गवाह न था
उम्मीद के उतरते-उतरते रात चढ़ आई थी
लौ को बुझना था कोई जश्न-ए-सियाह न था
रिश्ते की हक़ीक़त सूखे हुए गुलाब की थी
हर वस्ल एक आग़ोश था कोई पनाह न था
दिल और दिमाग महज़ जिस्म के हिस्से थे
दोनों को साथ रहना था कोई निबाह न था
ज़मीं सरकने लगी क़दम लड़खड़ाने लगा
अब और सितम ढाने का कोई राह न था
उम्र भर ख़ुद से फ़ासले पर रहना "धरम"
एक ख़्वाहिश ही थी कोई इकराह न था
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इकराह : मजबूरी, बेचारगी
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