Tuesday 9 April 2024

कोई निबाह न था

महज़ ख़्वाब का क़त्ल था कोई गुनाह न था  
आँखों के सामने लाश थी कोई गवाह न था 

उम्मीद के उतरते-उतरते रात चढ़ आई थी
लौ को बुझना था कोई जश्न-ए-सियाह न था 

रिश्ते की हक़ीक़त सूखे हुए गुलाब की थी  
हर वस्ल एक आग़ोश था कोई पनाह न था
 
दिल और दिमाग महज़ जिस्म के हिस्से थे   
दोनों को साथ रहना था कोई निबाह न था

ज़मीं सरकने लगी क़दम लड़खड़ाने लगा
अब और सितम ढाने का  कोई राह न था

उम्र भर ख़ुद से फ़ासले पर रहना "धरम"       
एक ख़्वाहिश ही थी  कोई इकराह न था 

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इकराह : मजबूरी, बेचारगी

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