Sunday 15 September 2024

ख़ंज़र कई सारे दाख़िल थे

अलावा दो जिस्मों के कई और रूह भी शामिल थे
उस क़त्ल में शरीक़ न जाने कितने सारे क़ातिल थे

उस ज़ख़्म के अलावा और कोई ज़ख़्म था ही नहीं    
एक ही सुराख़ था मगर ख़ंज़र कई सारे दाख़िल थे

क़ातिल ने अपना पता बदला भी महफूज़ भी रखा 
शिकार उसके सारे के सारे इस बात से ग़ाफ़िल थे
    
आँखों में मायूसी संभल न सकी ख़ुशी छलक आई
रिश्ता कैसा टूटा जिसमें दोनों के दोनों ला-ज़िल थे

महज़ एक मसअला पर हर किसी की आबरू गई   
कहने को तो महफ़िल में सारे के सारे इफ़ाज़िल थे

वो इलाक़ा कैसा था "धरम" वहाँ रिवायतें कैसी थी       
सारे के सारे नक़ाब-पोश वहाँ शान-ए-महफ़िल थे  
 
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ग़ाफ़िल : बेख़बर
ला-ज़िल : वह सोना जिसमें ज़रा भी खोट न हो
इफ़ाज़िल : प्रतिष्ठित जन / बड़े लोग

Sunday 8 September 2024

ख़ाक ख़ूब उड़ाया था

यकीं तो नहीं था  मगर फिर भी हाथ बढ़ाया था
इश्क़ था तो नहीं मगर फिर भी ख़ूब जताया था

उस रिश्ते को छुपाया फिर झँकझोर कर देखा    
तिरे लुटने से पहले हाँ ख़ुद को ख़ूब लुटाया था

उस रहबर ने मंज़िल की राह दिखाने से पहले       
याद नहीं घूँट लहू का कितनी बार पिलाया था

ज़िंदा रिश्ता जब दफ़्न किया तो उसके पहले  
न तो ख़ुद से बात किया  न ही मुझे बताया था

कुछ यादें जो क़ैद थी कुछ साँसें जो दफ़्न थी          
उस अँधेरी कोठरी में किसने उसे बसाया था

कि शाख़ें आसमाँ में हैं जड़ दिल में पैवस्त है   
बिना मिट्टी हवा पानी के बाग़ एक लगाया था

सबने सारी ख्वाहिशों को जलाया राख किया    
फिर तिरे नाम का वहाँ ख़ाक ख़ूब उड़ाया था

जब साँस टूटी दिल ने भी धड़कना बंद किया
साँस का दिल पर 'धरम' यह कैसा बक़ाया था