Thursday 18 December 2014

ज़ख्म-ए-दिल का जायका

कलेजे पर पत्थर रखकर अब तो मैं हर रोज सोता हूँ
मिलाकर लहू शराब में अब तो मैं हर रोज पीता हूँ

ज़ख्म-ए-दिल का जायका बहुत खूब भाया है मुझको
मिलाकर तेरी यादों में अपना कलेजा हर रोज खाता हूँ

जब तुम न थे मेरा दिल न धड़कता था न सुलगता था
दिल के टुकड़े को सीने में डालकर अब हर रोज सीता हूँ

जिस्म अकड़कर पत्थर के मानिंद पड़ा है अब चौराहे पर
ज़हर का घूँट "धरम" इसको अब तो हर रोज पिलाता हूँ

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