कभी तन्हाई जलाती रही कभी शोर सताता रहा
कि मंज़र कोई भी हो दिल हमेशा दुखाता रहा
वो धुआँ कहाँ से उठा क्यूँ उठा कुछ पता नहीं
मगर हाँ धुआँ में तैरता कोई चेहरा छुपाता रहा
वो बर्क़ न थी हिज़्र के आबरू एक कहानी थी
राख ज़मीं से उड़ा औ" आसमाँ में समाता रहा
नींद का न आना हरेक ख़्वाब का क़त्ल ही था
फिर मुर्दा आँखें बंद कर ख़ुद को सुलाता रहा
नसीब में था एक हथेली आसमाँ चंद सितारे
फिर वो त'अल्लुक़ उम्र-भर क़र्ज़ चुकाता रहा
हाथों पर चेहरे का हर रंग उभरता रहा "धरम"
फिर बड़े इल्म-ओ-फ़न से हर रंग छुड़ाता रहा