दिये की लौ को अब हवा के साथ जलना है
तौर-ए-ज़िंदगी को वक़्त के साथ बदलना है
समंदर को अब क़तरा के मानिंद चलना है
सैलाब को पानी बस बूँदों में ही उझलना है
बदन की आग में सिर्फ़ आँख का जलना है
क़लम की आग को काग़ज़ में कुचलना है
दाग दामन का कुछ इस तरह से धुलना है
एक सादे काग़ज़ पर स्याही का मचलना है
वक़्त के इशारों को बस उम्र भर छलना है
एक चेहरे पर दूसरे चेहरे का निकलना है
आँखों में बस एक ही सवाल का पलना है
दिल को इश्क़ से "धरम" कैसे संभलना है
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