Tuesday 2 July 2024

जिस्म अपना पिरोने लगा था

कोई दवा न दी गई थी मगर मरज़ ठीक होने लगा था
चाँद आसमाँ से उतरकर  सीने में कहीं खोने लगा था

बरसों की बेचैनी थी यकायक दूर तो न हो सकी मगर 
उसके हाथों में जादू था वो आँखों में नींद बोने लगा था 

वो आख़िरी मुलाक़ात थी  बस साथ बैठे आँखें मिलाई
फिर न जाने क्यूँ  दोनों बिना बात के ही  रोने लगा था

उन लम्हों को बुनते सिलते काफ़ी वक़्त गुज़र गया था 
आँखों में नींद तो न थी मगर न जाने क्यूँ सोने लगा था

वो सफ़ीना-समंदर का इश्क़ था वहाँ होना ही क्या था
समंदर सफ़ीने को आँखों में बिठाकर डुबोने लगा था

आधी उम्र बीतने के बाद "धरम" वो मुलाक़ात हुई थी  
दोनों बाँहों की कैंची में  जिस्म अपना पिरोने लगा था

No comments:

Post a Comment