मैं जो वक़्त से आगे निकलना चाह रहा था
हर ओर दीवारें थी न कोई राह मिल रहा था
सारे राहगर मुझसे कब के पीछे छूट गए थे
वक़्त राक्षश के मानिंद आग उगल रहा था
बहुत दूर पर वहां देखा पत्थर पिघल रहा था
मानव बनकर दानव कुछ और उबल रहा था
बारिश में शबनम के साथ शोला गिर रहा था
खेत कभी खिल रहा था तो कभी जल रहा था
पूनम की चांदनी का रंग काला पड़ गया था
औ" अँधेरे में तो सबको सबकुछ दिख रहा था
हर ओर दीवारें थी न कोई राह मिल रहा था
सारे राहगर मुझसे कब के पीछे छूट गए थे
वक़्त राक्षश के मानिंद आग उगल रहा था
बहुत दूर पर वहां देखा पत्थर पिघल रहा था
मानव बनकर दानव कुछ और उबल रहा था
बारिश में शबनम के साथ शोला गिर रहा था
खेत कभी खिल रहा था तो कभी जल रहा था
पूनम की चांदनी का रंग काला पड़ गया था
औ" अँधेरे में तो सबको सबकुछ दिख रहा था
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