Tuesday 18 November 2014

कोई ज़ख्म-ए-दिल नहीं है

फ़िज़ा में रंग है खुशबू है बहार भी है
और चमकता वो मेरा दामन-ए-यार भी है

दर्द-ए-हिज़्र का दूर तक कोई निशाँ नहीं है
जिधर भी देखूं दिखता सूरत-ए-यार ही है

बे-पनाह मोहब्बत की कहानी हरेक मज़ार पे है
बतौर-ए-निशानी चूमता रुखसार-ए-यार भी है

मोहब्बत के किस्से है यहाँ मुर्दा नाचता भी है
कि हरेक के बाहों में उसका बाहें-ए-यार भी है

जो बरसता है ग़ुलफाम हरेक शख्स झूमता भी है
नशा तारी है औ" चूमने को आरिज़-ए-यार भी है

अब कोई ज़ख्म-ए-दिल मुझको नहीं होता "धरम"
कि ज़ख्म और दिल के बीच वो नाम-ए-यार ही है

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