Monday 29 July 2019

हर चेहरा उभर कर चला

महफ़िल में दौर जब ज़हर कर चला
हर सैलाब उस महफ़िल में ठहर कर चला

रुख़सत के वक़्त के लम्हों का क्या कहना 
एक-एक लम्हा मानो कहर कर चला

कई ज़िंदगी के बाद एक मौत नसीब हुई थी
अब तो मौत पर भी ज़िंदगी का लम्हा असर कर चला

जब उसे माँगने पर मौत भी उधार में न मिली
तो अपनी ज़िंदगी वो यूँ हीं किसी को नज़र कर चला

बुलंदी और ज़िंदगी पाने को एक हुजूम चल रहा था
वो देकर अपनी मौत हर सोहरत को सिफर कर चला

जब उसे किसी भी रास्ते का कोई अंदाजा ही नहीं रहा
तब वो अपने ही खून के दरिया में निखर कर चला

उसके अंजुमन में कद्रदान जब गैर को निहारने लगे
तो ख़ुद अपने ही अंजुमन से वो बिफर कर चला

याद किसी और की आई चेहरा कोई और सामने आया
जो भूलना चाहा "धरम" तो हर चेहरा उभर कर चला

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