ऐ! मौला आँखें फिर से कभी न ये मंज़र देखे
कि एक अदना सफ़ीने में डूबता समंदर देखे
सहरा से लिपटी ज़मीं आग से लिपटा आसमाँ
ग़र ख़्वाब भी कुछ देखे तो सिर्फ़ बवंडर देखे
कि सितम के धागे से बनाए रहमत की चादर
ओढ़ाकर उसे क्या ख़ूब हर ज़ुल्म-परवर देखे
ये बुलंदी किसकी रहमत है ये ने'मत कैसी है
पाकर जिसे ख़ुद को वहाँ ख़ाक-बर-सर देखे
ये कैसे अहल-ए-दानिश हैं ये ता'लीम कैसी है
लहू उगलता हुआ क़लम शाम-ओ-सहर देखे
हद-ए-नज़र फैली कैसी तहज़ीब-ए-तमाशा है
हाथों में "धरम" ख़ंजर लिए 'इज्ज़-गुस्तर देखे
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ज़ुल्म-परवर : अत्याचारी
ने'मत : सम्मान का पद या पदवी
ख़ाक-बर-सर : निराश्रित, बेसहारा
'इज्ज़-गुस्तर : विनती करने वाला
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