Tuesday 20 August 2019

कुछ भी तो बचा न था उस सहारे में

न जाने क्या-क्या कह गया  वो एक लम्हा बस इशारे में
लोग समंदर तैर के आ  गए मैं बस बैठा रहा किनारे में

हरेक साँस पर अब क्या  कहें बस दम ही निकलता था 
देखने को और  कहाँ कुछ  रह  गया था  उस  नज़ारे में

ता-उम्र  वो जानते रहे  कि मेरे ज़िंदगी का  सहारा वो थे
बाद मेरे मरने के  कुछ भी तो बचा  न था उस  सहारे में

एक अजनबी  आवाज़ थी  जो मेरे कानों तक आ रही थी
देखा गौर से  मगर कोई चेहरा न उभरा उसके पुकारे में

जहाँ सूखा था दरिया 'धरम' वहाँ कैसे फिर उफान आया 
हम सोचते रहे कुछ भी पता न चला कुदरत के इशारे में 

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