Wednesday 30 October 2024

कौन संभलने वाला है

यह ख़ुर्शीद अब कहीं  और निकलने वाला है
यहाँ से अब दूर चलो कि वक्त ढलने वाला है

कलम उठाओ तो आग ख़ुद बरसने लगती है 
काग़ज़ पर मत लिखो  काग़ज़ जलने वाला है

आरज़ू बलंदी की है तो हर क़त्ल मुनासिब है
बाद ठोकर के भी यहाँ कौन संभलने वाला है

यहाँ ख़ामोश रहो कि  नशा तख़्त का तारी है
यहाँ क़तरा  अब समंदर को निगलने वाला है

यहाँ कभी न आना  यहाँ का दरिया निराला है  
यहाँ आब-ए-हयात भी ज़हर में पलने वाला है
   
यहाँ अपनी शक़्ल आईने में मत देखो "धरम"
यहाँ किरदार हर आइना का बदलने वाला है 

Wednesday 23 October 2024

माइक्रोग्रिड : एक संक्षिप्त परिचय

वो ज़माना था करेंट के एक तरफ़ा प्रवाह का  
पारंपरिक ईंधन के ख़त्म होने के आगाह का 
  
सुदूर लोड तक पहुँचने में गिरता था वोल्टेज
लॉस बहुत होता था वह मुद्दा था परवाह का

फिर मुद्दा आया पूरी क़ायनात की नेकी का       
जरुरत लगी इसमें शोधकर्त्ता के इत्माह का 

दौर था फिर ऊर्जा के वितरित उत्पादन का
साथ एक बंधन भी था क़ुदरत से निबाह का

बाद इसके जब और भी कुछ  जरूरतें बढ़ी   
भंडारण आया फिर उपभोक्ता की चाह का

इसके सर्वोत्तम उपयोग की चर्चा चलने लगी   
इल्म था नियंत्रण और प्रबंधन के अथाह का

हर वक़्त हुक्म की ग़ुलामी  जब खलने लगी 
तब ख़याल आया ख़ुद में छोटे बादशाह का

बग़ैर ग्रिड के  वह ख़ुद दे सकता है आपूर्ति
एक और दौर चला फिर वहाँ वाह-वाह का
 
स्टेब्लिटी रिलायबिलिटी प्रोटेक्शन या अन्य 
सारे के सारे पहलू पर सवाल था निर्वाह का

शोधक हर पहलू पर "धरम" लगे हैं ईमान से
तारीकी ख़त्म होगी होगा अंत हर सियाह का

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इत्माह : नज़रबाज़ी, नज़र उठा कर देखना

Saturday 19 October 2024

लहू उबाले उबलता नहीं

ये कैसा मोम है जो किसी भी आग में पिघलता नहीं
बड़ी हैरत की बात है कीचड़ उछाले उछलता नहीं 
 
अजीब मुलाक़ात थी  जो मरज़ मिला वो ऐसा मिला  
दर्द दिल में ऐसे समाया कि निकाले निकलता नहीं

इस बार का ये तूफ़ाँ पिछले सारे तूफ़ाँ से अलग था       
चराग़ इस तरह बुझा कि  फिर जलाये जलता नहीं

यादें बोझ हो चुकी थी  यादों को दफ़्न करना पड़ा        
उस क़ब्र से न जाने क्यूँ नज़र मिलाये मिलता नहीं

जुनूँ जब बलंदी पर पंहुचा हक़ीक़त ने राज़ खोला  
वो ठंढक आई ज़हन में  लहू उबाले उबलता नहीं

कि वो मसअला तो सिर्फ़ दो चराग़ों का था "धरम"
कैसी पसरी थी तारीकी शम' संभाले संभलता नहीं

Thursday 17 October 2024

फ़लक ख़ुद ज़मीं से मिलते हैं

किरदार सारे आज़ाद तो हैं  मगर क़ैद रहते हैं 
सितम की बातें भी दूसरों की ज़बाँ से कहते हैं
 
कुछ याद नहीं कि ये दिल किसका मुंतज़िर है  
दिल में ढ़ेर सारे जज़्बात एक ही साथ बहते हैं
  
मंज़िल को ये गुमाँ  की वो बलंदी की इंतिहा है
ये पता नहीं दीवाने फ़लक के सर पर चलते हैं

बलंदी की दास्ताँ हक़ीक़त से मिलती ही नहीं            
इधर देख  यहाँ फ़लक ख़ुद ज़मीं से मिलते हैं

तहज़ीब ये कि दावत-ए-सुख़न सब को देते हैं    
तमाशा ऐसा कि  एक दूसरे के होंठ सिलते हैं

उस किरदार ने साँसें अपनी बेच दी  "धरम"   
अब उसकी आँखों में ग़ैरों के ख़्वाब पलते हैं  

Wednesday 16 October 2024

ज़मीं पर कुछ आसमाँ बोता है

समंदर अपनी मर्ज़ी से  कब किनारा डुबोता है 
लहरें तब आती हैं जब कोई जज़्बात चुभोता है

उसे उरूज औ" ज़वाल से कोई फ़र्क़ ही कहाँ    
वो एक ही धागे में ज़मीं औ" आसमाँ पिरोता है
 
कहानी कैसी थी जिसमें हर किरदार ज़िंदा था
यूँ मोहब्बत में ऐसा  कब किसके साथ होता है

दरख़्तों की आँखें भी नम होकर झुक जाती हैं   
इस वीराने दश्त में इतना टूटकर कौन रोता है
 
कि दरमियाँ  दो ज़िस्मों के  ये रूह किसकी है 
बड़े इल्म से जो ज़मीं पर कुछ आसमाँ बोता है

मुफ़लिसी के इस आलम  को किससे बयाँ करे     
वो अपने काँधे पर "धरम" ग़ैरों का सर ढोता है      

Thursday 10 October 2024

सूरज को जला दूंगा

जब भी याद आयेगी तुरत भुला दूंगा   
सोये हुए गुलशन को और सुला दूंगा

ग़र नज़र मिलेगी चाँदनी रौशन होगी    
हँसती हुई आँखों को फिर रुला दूंगा

ग़र चाँदनी डूबेगी साँसें सुलग उठेंगी      
दिल के शोलों से सूरज को जला दूंगा

तिरे बज़्म में ग़र तुझपे कुछ गुजरेगी 
हुस्न हो या इश्क़ मिट्टी में मिला दूंगा

साँसें अभी ही टूटी हैं कि जरा ठहरो   
साँसों को सीने में  फिर से बुला दूंगा

कभी ख़ुद भी चल तू मेरे पास तो आ   
यहाँ दिल में एक आसमाँ खुला दूंगा

पहले कुछ बात शुरू तो हो "धरम" 
कुछ तीर नज़रों से फिर चला दूंगा  

Saturday 5 October 2024

ख़ंज़र निगल लेगा

धुंध की आढ़ में अपने घर से निकल लेगा
वापस आएगा तो पता  अपना बदल लेगा

रिश्ते में नाराज़गी ऐसी कि ग़र बिछड़ें तो       
साथ जिस्म के ख़ुद ही दिल भी चल लेगा

सितारे महफ़िल में अब उदास रहने लगे   
कैसे यक़ीं करें कि  दिल ख़ुद बहल लेगा

तबी'अत को अब तो कुछ भी भाता नहीं  
बहार को ये यक़ीं है कि मन मचल लेगा

रूहानी बातें भी दिल तक पहुँच न पाई
ऐसा क्या करें  जिसपर वो 'अमल लेगा
 
मुझे इस बात पर बिल्कुल यकीं "धरम"  
वो क़त्ल करेगा औ" ख़ंज़र निगल लेगा  
 

Wednesday 2 October 2024

नहीं है ए'तिबार यहाँ

कि हर तरफ फैला है धुएँ का ग़ुबार यहाँ  
सब कुछ हो चुका आग का शिकार यहाँ

पता नहीं कौन है किसका क़िरदार यहाँ 
ख़ुद के शक्ल पर कौन पाता वक़ार यहाँ 

दरमियाँ दो घरों के  खड़ी है दीवार यहाँ
जिसके दोनों तरफ रखे हैं हथियार यहाँ

ख़ूनी कौन है  किसका है इक़्तिदार यहाँ  
हर कोई जानता कौन है गुनाहगार यहाँ

मंज़िल का रास्ते से  कैसा है क़रार यहाँ 
बुलंदी के रास्ते में मिलता है उतार यहाँ

ये काँटे कैसे हैं कैसी फैली है बहार यहाँ
चमन को फूल पर नहीं है ए'तिबार यहाँ

पीठ में ख़ंज़र घोपते हैं ग़म-गुसार यहाँ
आस्तीन के साँप होते हैं राज़-दार यहाँ

ये "धरम" कैसी फ़ज़ा है इस बार यहाँ
आँखों में दर्द अब भी है बरक़रार यहाँ

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वक़ार : मान-मर्यादा
इक़्तिदार : आतंक
ग़म-गुसार : दुख-दर्द का बाँटने वाला / हमदर्द